काकोरी ट्रेन एक्शन

डकैती नहीं विद्रोह का वार


काकोरी ट्रेन एक्शन ब्रिटिश सरकार का ही खजाना लूट लेने की एक ऐतिहासिक घटना थी जिसे हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन के सिर्फ 10 स्वतंत्रता सेनानियों ने पं० रामप्रसाद 'बिस्मिल' के नेतृत्व में 9 अगस्त 1925 को अंजाम दिया था। इस ट्रेन डकैती में जर्मनी के बने चार माउज़र पिस्तौल काम में लाये गये थे जो रायफल की तरह कम करता था।

राम प्रसाद 'बिस्मिल' यह जानते थे कि पार्टी के कार्य हेतु धन की आवश्यकता ज्यादा होगी। अतः उन्होंने 7 मार्च 1925 को बिचपुरी तथा 24 मई 1925 को द्वारकापुर में दो राजनीतिक डकैतियाँ डालीं किन्तु उनमें कुछ विशेष धन उन्हें प्राप्त न हो सका। ये लूट उन लोगों के घर में हुआ था जो हमारे देश का धन गरीबों से चूस कर अंग्रेजों के हाथों में बेचते थे। इन दोनों डकैतियों में एक-एक व्यक्ति मौके पर ही मारे गये, जिससे बिस्मिल की आत्मा को अत्यधिक कष्ट हुआ।

अन्ततः उन्होने निर्णय लिया कि वे केवल ब्रिटिश खजाना ही लूटेंगे जिसमें हमारे देश से लूटा हुआ खजाना रखा था। 8 अगस्त को राम प्रसाद 'बिस्मिल' के घर पर हुई बैठक में राम प्रसाद बिस्मिल ने अंग्रेजी सरकार का खजाना लूटने की योजना बनायी जिसके अनुसार दल के ही एक प्रमुख सदस्य राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी ने 9 अगस्त 1925 को लखनऊ जिले के काकोरी रेलवे स्टेशन से छूटते ही ट्रेन की चेन खींचकर रोक दिया उसके बाद बिस्मिल के नेतृत्व में अशफाक उल्ला खाँ, पण्डित चन्द्रशेखर आज़ाद व 6 अन्य सहयोगियों की मदद से समूची ट्रेन पर धावा बोलते हुए सरकारी खजाना लूट लिया।

बाद में अंग्रेजी हुकूमत ने उनकी पार्टी हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन के कुल 40 क्रान्तिकारियों पर सम्राट के विरुद्ध सशस्त्र युद्ध छेड़ने, सरकारी खजाना लूटने व मुसाफिरों की हत्या करने का मुकदमा चलाया जिसमें राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खाँ तथा ठाकुर रोशन सिंह को फाँसी की सजा सुनायी गयी। इस मुकदमें में अन्य क्रान्तिकारियों को कम से कम 4 वर्ष की सजा से लेकर अधिकतम काला पानी (आजीवन कारावास) तक का दण्ड दिया गया था।

काकोरी की झलकियाँ


डकैती नहीं विद्रोह का वार

शचीन्द्रनाथ सान्याल बाँकुरा तथा योगेशचन्द्र चटर्जी के गिरफ्तार हो जाने से पंडित रामप्रसाद 'बिस्मिल' के कन्धों पर उत्तर प्रदेश के साथ-साथ बंगाल के क्रान्तिकारी सदस्यों का उत्तरदायित्व भी आ गया। बिस्मिल किसी काम को पूरा किये बगैर छोड़ते न थे। पार्टी के कार्य हेतु धन की आवश्यकता और भी अधिक बढ गयी थी। जिसको मद्दे नजर रखते हुए उन्होंने 7 मार्च 1925 को बिचपुरी तथा 24 मई 1925 को द्वारकापुर में दो राजनीतिक डकैतियाँ डालीं किन्तु उनमें कुछ विशेष धन उन्हें प्राप्त न हो सका। ये लूट उन लोगों के घर में हुआ था जो हमारे देश का धन गरीबों से चूस कर अंग्रेजों के हाथों में बेचते थे। इन दोनों डकैतियों में एक-एक व्यक्ति मौके पर ही मारे गये, जिससे बिस्मिल की आत्मा को अत्यधिक कष्ट हुआ।
अन्ततः उन्होने निर्णय लिया कि वे केवल अंग्रेजी सरकारी खजाना ही लूटेंगे जिसमें हमारे देश का खजाना रखा होगा।

8 अगस्त को राम प्रसाद 'बिस्मिल' के घर पर हुई एक जरूरी बैठक में योजना बनी और अगले ही दिन 9 अगस्त 1925 को शाहजहाँपुर शहर के रेलवे स्टेशन से बिस्मिल के नेतृत्व में कुल १० क्रान्तिकारी सहारनपुर-लखनऊ पैसेंजर रेलगाड़ी में सवार हुए, जिसमें शाहजहाँपुर से बिस्मिल के अतिरिक्त अशफाक उल्ला खाँ, मुरारी शर्मा, बनवारी लाल, राजेन्द्र लाहिडी, शचीन्द्रनाथ बख्शी, केशव चक्रवर्ती (छद्मनाम), चन्द्रशेखर आजाद, मन्मथनाथ गुप्त मुकुन्दी लाल शामिल थे।

काकोरी रेलवे स्टेशन से जैसे ही गाड़ी आगे बढ़ी, क्रान्तिकारी राजेन्द्रनाथ लाहिडी ने चेन खींचकर उसे रोक लिया और गार्ड के डिब्बे से मात्र दो ही क्रान्तिकारी अशफाक उल्ला खाँ और चन्द्रशेखर आजाद ने सरकारी खजाने के बक्से को नीचे गिरा दिया।, पूरे कांड के दौरान गलती से केवल एक मुसाफिर मारा गया।

गिरफ्तारी

सरकारी खजाना लूटकर वहाँ से भागने में गलती से एक चादर वहीं छूट गई। जिससे अंग्रेजी हुकूमत खुफिया से इस डकैती का सारा भेद प्राप्त कर लिया और 26 सितम्बर 1925 की रात में बिस्मिल के साथ समूचे हिन्दुस्तान से 40 क्रान्तिकारियों को गिरफ्तार कर उनकी पार्टी हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन के क्रान्तिकारियों पर सम्राट के विरुद्ध सशस्त्र युद्ध छेड़ने, सरकारी खजाना लूटने व मुसाफिरों की हत्या करने का मुकदमा चलाया।

जिसमें राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खाँ तथा ठाकुर रोशन सिंह को फाँसी की सजा सुनायी गयी। इस मुकदमें में अन्य क्रान्तिकारियों को कम से कम 4 वर्ष की सजा से लेकर अधिकतम काला पानी (आजीवन कारावास) तक का दण्ड दिया गया था।

बिस्मिल का इंकार

सेशन जज के फैसले के खिलाफ 18 जुलाई 1927 को अवध चीफ कोर्ट में अपील दायर की गयी। चीफ कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश सर लुइस शर्ट और विशेष न्यायाधीश मोहम्मद रजा के सामने मामला पेश हुआ। जिसमे बिस्मिल साहब ने सरकारी वकील लेने से इनकार कर दिया और उन्होने अपनी पैरवी खुद की।

बिस्मिल ने बहस के दौरान सरकारी वकील की खिल्ली उड़ाते हुए एक शायरी की थी.....

"मुलाजिम हमको मत कहिये, बड़ा अफ़सोस होता है;
अदालत के अदब से हम यहाँ तशरीफ लाए हैं।
पलट देते हैं हम मौजे-हवादिस अपनी जुर्रत से कि
हमने आँधियों में भी चिराग अक्सर जलाये हैं।"

जोरदार बहस

अपनी पैरवी खुद करते हुए बिस्मिल ने चीफ कोर्ट के सामने अंग्रेजी में बहस की तो सरकारी वकील जगतनारायण मुल्ला जी बगलें झाँकते नजर आये। इस पर चीफ जस्टिस लुइस शर्टस् ने बिस्मिल से पूछा, मिस्टर रामप्रसाड ! फ्रॉम भिच यूनीवर्सिटी यू हैव टेकेन द डिग्री ऑफ ला ? (राम प्रसाद! तुमने किस विश्वविद्यालय से कानून की डिग्री ली?)

इस पर बिस्मिल ने हँसकर चीफ जस्टिस को उत्तर दिया था - एक्सक्यूज मी सर ! ए किंग मेकर डजन्ट रिक्वायर ऐनी डिग्री। (क्षमा करें महोदय ! सम्राट बनाने वाले को किसी डिग्री की आवश्यकता नहीं होती।)

बिस्मिल ने बहस के दौरान सरकारी वकील की खिल्ली उड़ाते हुए एक सायरी की थी.....

मुलाजिम हमको मत कहिये, बड़ा अफ़सोस होता है;
अदालत के अदब से हम यहाँ तशरीफ लाए हैं।
पलट देते हैं हम मौजे-हवादिस अपनी जुर्रत से कि
हमने आँधियों में भी चिराग अक्सर जलाये हैं।


बिस्मिल द्वारा दी गयी सफाई की बहस से सरकारी तबके में सनसनी फैल गयी और जब उन्होने लिखित बहस पेश की जिसे देखकर जजों मे सन्नाटा छा गया। जजों मे यह शक था कि इसे बिस्मिल ने स्वयं न लिखकर किसी और से लिखवाया है। अतः जजों ने मिलकर उसी वकील को सौंपा जिसे लेने से बिस्मिल ने मना कर दिया था। क्योंकि अगर बिस्मिल को पूरा मुकदमा खुद लड़ने की छूट दी जाती तो सरकार निश्चित रूप से मुकदमा हार जाती। इसके बाद जजों से नाराज क्रांतिकारि लगातार 40 दिनों तक भूख हड़ताल पर रहे थे।

रंग दे बसंती

लखनऊ जेल में बिस्मिल व अन्य साथी कैद थे, इसी दौरान बसन्त पंचमी का त्यौहार आ गया। सब क्रान्तिकारियों ने मिलकर तय किया कि कल बसन्त पंचमी के दिन हम सभी सर पर पीली टोपी और हाथ में पीला रूमाल लेकर कोर्ट चलेंगे। उन्होंने अपने नेता राम प्रसाद 'बिस्मिल' से कहा- "पण्डित जी! कल के लिये कोई फड़कती हुई कविता लिखिये, उसे हम सब मिलकर गायेंगे।

रंग दे बसंती

मेरा रँग दे बसन्ती चोला....
हो मेरा रँग दे बसन्ती चोला....

इसी रंग में रँग के शिवा ने माँ का बन्धन खोला,
यही रंग हल्दीघाटी में था प्रताप ने घोला;

नव बसन्त में भारत के हित वीरों का यह टोला,
किस मस्ती से पहन के निकला यह बासन्ती चोला।

मेरा रँग दे बसन्ती चोला....
हो मेरा रँग दे बसन्ती चोला....

सरफ़रोशी की तमन्ना

राम प्रसाद 'बिस्मिल' जेल से पुलिस की लारी में अदालत जाते हुए, अदालत में मजिस्ट्रेट को चिढाते हुए व अदालत से लौटकर वापस जेल आते हुए कोरस के रूप में गज़ल गाया करते थे।

सरफ़रोशी की तमन्ना

सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है,
देखना है जोर कितना बाजुए-क़ातिल में है !

वक़्त आने दे बता देंगे तुझे ऐ आसमाँ !
हम अभी से क्या बताएँ क्या हमारे दिल में है !

खीँच कर लाई है हमको क़त्ल होने की उम्म्मीद,
आशिकों का आज जमघट कूच-ए-क़ातिल में है !

ऐ शहीदे-मुल्को-मिल्लत हम तेरे ऊपर निसार,
अब तेरी हिम्मत का चर्चा ग़ैर की महफ़िल में है !

अब न अगले बल्वले हैं और न अरमानों की भीड़,
सिर्फ मिट जाने की हसरत अब दिले-'बिस्मिल' में है !
बाद में ये गजल सारे हिंदुस्तान प्रेमियों के लिए एक मंत्र बन गया

क्षमादान के प्रयास

ठाकुर मनजीत सिंह राठौर ने सेण्ट्रल लेजिस्लेटिव कौन्सिल में काकोरी ट्रेन एक्शन के चारो मृत्यु-दण्ड प्राप्त कैदियों की सजायें कम करके आजीवन कारावास (उम्र-कैद) में बदलने का प्रस्ताव पेश किया। परन्तु सर विलियम मोरिस ने उस प्रार्थना को अस्वीकार कर दिया। पं० मदन मोहन मालवीय, मोहम्मद अली जिन्ना, एन० सी० केलकर, लाला लाजपत राय, गोविन्द वल्लभ पन्त आदि ने अपने हस्ताक्षर किये थे किन्तु वायसराय पर उसका भी कोई असर न हुआ।

इसके बाद मदन मोहन मालवीय के नेतृत्व में पाँच व्यक्तियों का एक मण्डल शिमला जाकर वायसराय से दोबारा मिला और उनसे यह प्रार्थना की कि चूँकि इन चारो अभियुक्तों ने लिखित रूप में सरकार को यह वचन दे दिया है कि वे भविष्य में इस प्रकार की किसी भी गतिविधि में हिस्सा न लेंगे और उन्होंने अपने किये पर पश्चाताप भी प्रकट किया है अतः उच्च न्यायालय के निर्णय पर पुनर्विचार किया जा सकता है किन्तु वायसराय ने उन्हें साफ मना कर दिया।

अंततः कई प्रयासों के बावजूद इन देश भक्तों को अँग्रेजी शासन द्वारा सजा मिली जिसमे पं० रामप्रसाद 'बिस्मिल, राजेन्द्रनाथ लाहिडी, अशफ़ाक़ुल्लाह ख़ाँ, ठाकुर रोशानसिंह को फासी कि सजा तथा अन्य साथियों को काला पानी कि सजा हुई। ये भारत माता के लाल हँसते और गाते हुए फासी के फंदे को चूम लिया और लोगों के अंदर देश के प्रति एक चिराग जला गए। हम ऐसे माँ के लाल को सत नमन प्रणाम करते है।