चौरीचौरा कांड के बाद 1922 में जब महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन
वापस लिया तो चहुंओर क्रांतिकारी गतिविधियां जोर पकड़ने लगीं। लोग ब्रिटानी हुकूमत से आर-पार की लड़ाई के मूड में आ गये।
गोरखपुर आसपास का इलाका भी इस संग्राम में पूरी दमदारी से कूद गया। उपरोक्त क्रांतिकारियों के साथ गोरखपुर के
अलीनगर निवासी बंधु सिंह, बेतियाहाता के पंडित गौरीशंकर, कोतवाली के सरदार अली खां, जाफरा बाजार के सुभान अल्लाह,
नसीराबाद के दिलदार हुसैन व अब्दुल समद, धुरियापार के राजा शाह इनायत अली व जामिन अली, रघुपति सहाय फिराक गोरखपुरी,
गेंदा सिंह, मेजर उदय सिंह, श्याम बदन सिंह, चंद्रिका लाल श्रीवास्तव ने भी हुकूमत के खिलाफ अपनी गतिविधियों से
आवाज बुलंद कर आजादी की अलख जगा दी। दुर्भाग्य है कि गोरखपुर के इन क्रांतिकारियों को इतिहास के पन्नों में जगह
नहीं मिल सकी।
आमंत्रण
दरअसल, मामला देश की आजादी के लिए जान गंवाने वाले उन तमाम वीर सपूतों से जुड़ा हुआ है, जिन्हें हम आदर नहीं दे पाते। हमें विचार करना चाहिए कि आखिर ऐसा क्यों ? क्या हमारे पास उन्हें याद करने का इतना भी वक्त नहीं जिनकी बदौलत पूरा देश खुली हवा में सांस ले पा रहा। क्या आपको लगता है कि देश को इतनी आसानी से आजादी मिल गई होगी, कहने में कोई संकोच नहीं कि इसके पीछे बहुतों ने बहुत कुछ लुटा दिया। 100 वर्षों की गुलामी से मुल्क आजादी की नई किरण से सराबोर हो सके इसके लिए तमाम क्रांतिवीरों ने हंसते हुये फांसी के फंदे को चूम लिया। बेइंतहा जुल्म सहे, आजादी के दीवानों ने क्या इसीदिन के लिए अपना जीवन न्यौछावर किया कि हम-आप उन्हें भूल जाएंगे। नई पीढ़ी भावी पीड़ी देश के उन सपूतों का नाम जान सके, उन्हें नमन कर सके इसके लिए गुरुकृपा संस्थान पिछले 11 वर्षों से एक अभियान चला रहा है। मकसद इतना ही है कि समाज के लोग क्रांतिवीरों के त्याग, बलिदान से रूबरू हो सकें। आज हमपर ब्रिटानी बहुकूमत के कोई नहीं बरसते तो इसके पीछे सिर्फ पंडित रामप्रसाद बिस्मिल, भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, राजेंद्रनाथ लाहड़ी, अशफाक उल्ला खां, ठाकुर रोशन सिंह, दुर्गा भाभी सरीके उन तमाम अमर शहीदों का हंसते हुये फांसी के फंदे को चूम लेना ही था। गंभीर विषय है कि नई पीढ़ी अमर शहीदों को भूलती जा रही। कल्पना कीजिये, क्या ब्रिटानी हुकूमत के खूनी पंजों ने हमें यूं ही आजाद कर दिया होगा। क्या भारत माता के पैरों में पड़ी गुलामी की जंजीरों को तोड़ने में उनके बच्चों ने बेइंतहा जुल्म और दर्द नहीं सहे होंगे। पुरखे बताते हैं कि आजादी की राह बड़ी कठिन थी। बात-बात पर कोड़े से पीटा जाता था, आये दिन पेड़ों पर फांसी दी जाती थी। खौलता तेल-पानी उड़ेल देना जैसे आम बात हो गई थी।
जहां हम और आप अमर शहीद पंडित रामप्रसाद बिस्मिल के साथ उन क्रांतिकारियों को नमन करें जिन्होंने आजादी का सपना देखा और भारत को आजाद कराकर ही दम लिये। सनद रहे कि पंडित बिस्मिल को ब्रिटानी हुकूमत ने काकोरी कांड के अंजाम में गोरखपुर जेल में 10 अगस्त 1927 को कैद कर दिया था। वह यहां की बैरक नंबर 7 में 4 महीने 10 दिन तक गुजारे। फिर इसी साल हुकूमत ने उन्हें 19 दिसंबर की सुबह 6 बजे जेल परिसर में बने फांसी घर के फंदे पर चढ़ाया और रस्सी खींच दी। पंडित रामप्रसाद बिस्मिल तभी से अमर हो गये। गुरुकृपा संस्थान गोरखपुर में स्थित आजादी के इस तीर्थस्थली पर हर वर्ष 19 दिसंबर को बिस्मिल की याद में शंखनाद करता है। हमें उम्मीद है कि आप इस पावन तीर्थस्थली पर जरूर पधारेंगे। आपका तहेदिल से स्वागत है।
प्रेषक
बृजेश राम त्रिपाठी
देश की जंगे आजादी में फांसी के फंदे को हंसते चंद्रशेख हुये चूम लेने वाले पंडित रामप्रसाद बिस्मिल काकोरी कांड से चर्चा में आये। 11 जून 1897 को मैनपुरी में जन्मे बिस्मिल ने ब्रिटानी हुकूमत की नींद हराम कर दी। पंडित मुरलीधर की दूसरी • संतान ने जिंदगी में जो ठान लिया वह सब किया। बिस्मिल के गोरखपुर आने का कारण आजादी के लिए धन जुटाने के लिए की गई एक साहसिक घटना से जुड़ी हुई है। जंगे आजादी को जिंदा रखने के लिए बिस्मिल ने अपने साथियों के साथ 8 डाउन सहारनपुर-लखनऊ पैसेंजर ट्रेन को काकोरी स्टेशन के पास चैनपुलिंग कर रोक लिया। आजादी के मतवालों ने इस ट्रेन से ब्रिटानी हुकूमत के 8942 रुपये के खजाने को उतार लिया। हुकूमत ने इसे डकैती माना। (जबकि क्रांतिकारी इसे लूट न मानकर अपना हक समझते थे)। इस घटना को अदालत में बड़ा अपराध साबित करने के लिए ब्रिटानी हुकूमत ने 13 लाख 84 हजार 8 सौ 22 रुपये खर्च किये। काकोरी ट्रेन कांड को हुकूमत ने बड़ी गंभीरता से लिया। हुकूमत चाहती थी कि काकोरी ट्रेन कांड को अंजाम देने वाले किसी भी सूरते हाल में न बख्शे जाएं। उनकी गिरफ्तारी हो और फांसी देकर भारतीयों को कड़ा संदेश दिया जाए। ताकि कोई भी भारतीय बगावत का बिगुल फूंकने के पहले सौ बार सोचे। फिर क्या था, गोरे सिपाही काकोरी कांड को अंजाम देने वालों के पीछे हाथ धोकर पड़ गये। इसी दौरान घटना स्थल पर बिस्मिल की शॉल मिल गई। इस बड़े सुराग के हाथ लगने के बाद फिरंगियों ने उनके सभी
साथियों को पकड़ लिया। काकोरी कांड में अशफाक उल्ला खां, राजेंद्रप्रसाद लाहिड़ी, चंद्रशेखर आजाद, शचिंद्रनाथ बख्शी, मुकुंदी लाल, केशव चक्रवर्ती, मुरारी लाल गुप्ता, बनवारीलाल, मन्मथनाथ गुप्ता शामिल थे।
काकोरी कांड में दोषसिद्ध करते हुये अंग्रेजी हुकूमत ने 19 दिसंबर 1927 को पंडित रामप्रसाद बिस्मिल को गोरखपुर जेल, अशफाक उल्ला खां को फैजाबाद जेल, ठाकुर रोशन सिंह को नैनी जेल में फांसी दे दी। जबकि दो दिन पहले यानी 17 दिसंबर 1927 को राजेंद्र प्रसाद लाहिडी को गोंडा जेल में फांसी के फंदे पर लटका दिया। वैसे तो सभी क्रांतिकारियों की कुछ न कुछ खूबियां थीं।
इनमें से
अगर बिस्मिल चाहते तो फिरंगी उन्हें कभी न पकड़ याते। ऐसे कई मौके आये जब फिरंगियों के हाथ से बिस्मिल फिसल जाते। मतलब भाग जाते। काकोरी केस में विस्मिल समेत कई
क्रांतिकारी गिरफ्तार किए गए थे। रामप्रसाद बिस्मिल का भी नाम काकोरी केस में था। 10 क्रांतिकारियों ने मिलकर ट्रेन से अंग्रेजों का ले जाया जा रहा रुपया लूट लिया था।
इस केस में जब पुलिस ने बिस्मिल को गिरफ्तार किया तब का किस्सा बड़ा रोचक है। अपनी आत्मकथा में बिस्मिल ने लिखा है कि सिर्फ एक मुंशी जागकर लिखा-पढ़ी कर रहा था। वह चाहते तो आराम से भाग जाते। लेकिन मुंशी दरअसल, क्रांतिकारी रोशनलाल का रिश्तेदार था।
बिस्मिल ने उन्हें बुलाकर पूछा कि मैं भागने की सोच रहा हूं लेकिन इसके बाद आप पर मुसीबत आ जाएगी। नौकरी जा सकती है।
अगर आप इतना कष्ट सहने को तैयार हैं तो मैं निकल जाऊं। इसलिए बिस्मिल सुबह तक चुपचाप बैठे रहे। काकोरी केस में बिस्मिल समेत और भी कई आरोपियों को जेल में रखा गया था। गिरफ्तारी सबकी हो चुकी थी। केवल चंद्रशेखर आजाद नहीं पकड़े गये थे। बिस्मिल अपनी आत्मकथा में लखनऊ जेल का भी एक किस्सा बताते हैं। वहां जेलर पंडित चंपालाल इन्हें अपने बेटे की तरह मानते थे। बाकी क्रांतिकारियों से भी परिवार की तरह पेश अपने जेल की आते थे।
बस अब किसी रात सलाखें उठाकर निकल जाना था, लेकिन सबका विश्वास था
कि बिस्मिल कभी जेल से नहीं भागेंगे इसलिए विस्मिल महीनों तक दुविधा में रहे और जेल से नहीं भागे। फांसी की सजा होने तक बिस्मिल के पास भागने के कई मौके आये,
लेकिन बिस्मिल आखिरकार फांसी की सजा पूरी करने के बाद ही गये। भारतीय स्वाधीनता संग्राम में बिस्मिल एक महान क्रांतिकारी ही नहीं थे
बल्कि उच्च कोटि के साहित्यकार, शायर, कवि भी थे। वह भारत के मौजूदा हालातों पर चिंतित थे। उनका मानना था कि भारत में बहुत से लोगों के पास शिक्षा नहीं है।
भारत की आने वाली शिक्षित पीढ़ी को चाहिए कि वो श्रमजीवी और किसानों को उनके गांवों में जाकर उनकी दशा सुधारें। जातिगत व्यवस्था से बिस्मिल बहुत दुखी रहते थे।
उन्होंने एक जगह पर लिखा है कि जिस देश में करोड़ों मनुष्य अछूत समझे जाते हों उस देश को स्वाधीन होने का कोई अधिकार नहीं है।
शिक्षा के महत्व पर अपनी कलम से लिखते हैं कि 'जब भारत की अधिकांश जनता शिक्षित हो जाएगी, तभी हर आन्दोलन कामयाब होगा और दुनिया की कोई ताकत उसे दबा नहीं पाएगी।'
देश की आजादी की लड़ाई के दौरान रामप्रसाद बिस्मिल नाम पर मणिपुर षडयंत्र और काकोरी ट्रेन डकैती जैसी कई घटनाएं दर्ज हुई।
इनके अलावा उनकी जिंदगी से जुड़ी तमाम ऐसी रोचक घटनाएं हैं, जो उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखी हैं। बिस्मिल को काकोरी ट्रेन डकैती मामले में गिरफ्तार कर लिया गया था।
गोरखपुर जेल में रहने के दौरान उन्होंने फांसी के दो दिन पहले अपनी आत्मकथा पूरी की थी।
फांसी के दो दिन पहले जब उनकी मां उनसे मिलने जेल में आईं तो
बाद में 1928 में गणेश शंकर विद्यार्थी ने इसे छपवाया। इसमें राम प्रसाद बिस्मिल ने अपने जीवन के कई पहलुओं को लिखा है।
बिस्मिल के पिता पढ़ाई-लिखाई को लेकर बचपन जब बिस्मिल देवनागरी सीख रहे थे उन्हें 'उ' लिखने में दिक्कत हो रही एक बार पिताजी ने उन्हें 'उ' लिखकर प्रैक्टिस करने को और खुद कचहरी गए। मगर बिस्मिल मौका पाकर खेलने चले गये। शाम को जब पिता आए तो 'उ' लिखकर दिखाने को कहा। तब वह नहीं लिख पाए, इस पर पिताजी आग-बबूला हो गए। पिता ने बिस्मिल को बंदूक के गज के लोहे से इतना पीटा कि गज टेढ़ा पड़ गया। बिस्मिल भागकर दादी के पास चले गए, तब जाकर बच पाए।
चौदह की उम्र में रामप्रसाद पांचवीं क्लास में पहुंच गये थे। तभी उन्हें उपन्यास पढ़ने की आदत लग गई। उपन्यास खरीदने के लिए इन्हें पैसों की जरूरत होती थी, जिसकी वजह से ये घर में चोरी
करने लगे। पर जहां से ये किताबें लाते थे, उस दुकानदार को इस बात का पता लग गया। दुकानदार उनके पिताजी को जानता था। उसने शिकायत कर दी। इन्होंने वहां से किताबें लेनी छोड़ दीं, लेकिन इसी दौरान उन्हें सिगरेट और भांग के नशे की भी लत हो गई। सिगरेट पीने की इतनी बुरी लत लग चुकी थी कि दिन में 50 से 60 सिगरेट पी जाया करते थे। खैर, यह बुरी लत पिता की सख्ती और दोस्त सुशीलचंद की वजह से छूट गई। नशे के आदतों से बिस्मिल दो बार मिडिल की परीक्षा में पास नहीं हो सके।
आत्मकथा में लिखते हैं कि उनके घर के पास के मंदिर में एक मुंशी जी आते रहते थे। एक बार उन्होंने रामप्रसाद बिस्मिल को सलाह दी कि संध्या किया करो। संध्या के बारे में जानने के लिए उन्होंने सत्यार्थ प्रकाश पढ़ा, जहां से उन्हें ब्रह्मचर्य की प्रेरणा मिली। बिस्मिल अपनी आत्मकथा लिखते हैं, 'मैं तख्त पर कंबल. बिछाकर सोने लगा और सुबह चार बजे उठ जाता था। उस दौरान रात का भोजन भी त्याग दिया। दिन में किए जाने वाले भोजन में उबला हुआ साग और दाल ही खाता था। मिर्च और खटाई छोड़ दिया था। बाद में भोजन में नमक लेना भी बंद कर दिया।
आदत लगभग 18 साल की उम्र में बिस्मिल पहली बार टेन में बैठे। उन्होंने टिकट तीसरे दर्जे की खरीदी। लेकिन इंटर क्लास में बैठकर दोस्तों से बात करते हुए चले गए। इंटर क्लास का टिकट तीसरे दर्जे के टिकट से ज्यादा महंगा था। बाद में इन्हें अपने इस कृत्य पर बहुत दुख हुआ। दोस्तों से कहा कि यह एक तरह की चोरी है, हमें बाकी के पैसे स्टेशन मास्टर को दे देना चाहिए। आत्मकथ में लिखते हैं कि मैंने अपने जीवन में हर प्रकार से सत्य का आचरण किया, चाहे कुछ भी हो जा सत्य पर अडिग रहा। सत्य पर टिके रहने क वजह से ही मेरी गिरफ्तारी हुई नहीं तो फिरंगी मु कभी न पकड़ पाते।
लड़ाका पुरखों को नहीं जानती नई पीढ़ी :
पाठ्यक्रम में शामिल हो क्रांतिवीरों का नाम
गुरुकृपा संस्थान के संस्थापक बृजेशराम त्रिपाठी कहते हैं कि नई पीढ़ी के पास बॉलीवुड को सुनने समझने का समय है। जिनकी बदौलत देश आजाद हुआ ऐसे रियल हीरो का आज के युवा नाम तक नहीं जानते। आजादी के 73 साल बाद भी स्कूली पाठ्यक्रमों में भारतीय स्वाधीनता से जुड़े क्रांतिवीरों को ठीक से नहीं शामिल किया गया है। स्कूलों की पाठ्य पुस्तकों में भारतीय क्रांतिवीरों का इतिहास शामिल न रहना दुख की बात है। बृजेशराम कहते हैं कि बीते 11 वर्षों से सफलतापूर्वक आयोजित होते आ रहे पंडित रामप्रसाद बिस्मिल शहीद मेले का यही मकसद है कि समाज क्रांतिवीरों को जाने। कहते हैं कि जंगे आजादी में गोरखपुर की भूमिका स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज है। 1857 के गदर से लेकर 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन तक में पूर्वांचल के लोगों ने देश की आजादी के लिए अनेक लड़ाइयां लड़ीं। डोहरिया कला में 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान गोरखपुर के आजादी के दीवानों ने ब्रिटिश हुकूमत से सीधा मोर्चा लिया और देश के लिए शहीद हो गए थे। देश में आजादी का बसंत लाने के लिए लाखों भारतीयों ने अपने प्राणों की आहुति दी थी। तब फिरंगी हुकूमत के बर्बरतापूर्वक दमन का उसी की भाषा में जवाब देने के लिए नौजवानों का खून खौल उठा था। क्रांतिवीरों के लगातार बलिदान होने का सिलसिला जारी रहा। बृजेशराम त्रिपाठी को एक दर्द आजतक साल रहा। कहते हैं कि आजादी दिलाने के लिए अपना सबकुछ बलिदान करने वाले अपने ही देश में पराये हो गये हैं। उन्हें जो सम्मान मिलना चाहिए हमलोग नहीं दे पाते। 15 अगस्त 1947 के बाद क्रांतिकारियों के सपनों का भारत बनाने की बजाय उन अनगिनत शहीदों के संघर्ष, त्याग, बलिदान को नई पीढ़ी भूल चुकी है।